तिनकों के ढ़ेर का इंतजार है

 दुश्मन हो गया है ये कलयुग

प्यारी सी रौशनी का इंतज़ार है

आज तेरे अपने भी नहीं चाहते तेरे शरीर को

तिनकों के ढ़ेर का इंतजार है

कभी समुंद्र बन, तो कभी सागर *

किसी को मिट्ठे पानी का इंतज़ार है

प्रकृति की चोट भी कम पड़ी इस दुनिया को

एक बड़े तबाही का इंतज़ार है


*( धर्म का जंजाल समुंद्र या सागर के खारे पानी जैसा है, मानवता किसी मीठे पानी जैसा है)

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